सर्वोच्च न्यायालय ने आखिर समलैंगिकों की निजता का सम्मान करते हुए धारा तीन सौ सतहत्तर को समाप्त कर दिया है। पांच न्यायाधीशों के पीठ ने अपने फैसले में कहा कि यौन प्राथमिकता जैविक और प्राकृतिक है। अंतरंगता और निजता किसी का निजी चुनाव है, इसमें राज्य को दखल नहीं देना चाहिए। इस मामले में किसी भी तरह का भेदभाव मौलिक अधिकारों का हनन है। धारा तीन सौ सतहत्तर इन अधिकारों का हनन करती थी। इस धारा को समाप्त करने की मांग लंबे समय से उठाई जा रही थी। इसमें कई स्वयंसेवी संगठन और समलैंगिक लोग शामिल थे। तर्क दिया गया था कि ब्रिटिश शासन के दौरान बने इस कानून का अब कोई औचित्य नहीं है। दुनिया के बहुत सारे देश समलैंगिकता को मान्यता दे चुके हैं। पर हमारे यहां अब भी इस कानून के तहत दो समान लिंगी लोगों के परस्पर यौन संबंध बनाने, विवाह करने आदि पर चौदह साल से लेकर आजीवन कारावास तक की सजा का प्रावधान लागू था। इस कानून की वजह से समाज का नजरिया भी ऐसे लोगों के प्रति नहीं बदल पा रहा था। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय के ताजा फैसले पर भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों को एतराज है। उनका तर्क है कि यह भारतीय समाज के अनुकूल नहीं है। इसलिए समाज के नजरिए में जल्दी बदलाव की बेशक संभावना क्षीण नजर आती हो, पर इससे समाज में समलैंगिकों की प्रताड़ना पर रोक अवश्य लग जाएगी।

कानून व्यक्ति, समाज और देश के हितों को ध्यान में रखते हुए बनाए जाते हैं। इसलिए बदली परिस्थितियों के अनुसार उनमें संशोधन होते रहते हैं। हालांकि इन बदलावों को लेकर समाज और देश के सभी लोग सहमत और संतुष्ट हों, जरूरी नहीं। इसलिए अक्सर कानूनी बदलावों को लेकर विरोध के स्वर भी उभरते रहते हैं। पर जिस कानून से मानवीय अधिकारों का हनन होता हो, उसे सिर्फ समाज के कुछ लोगों के नजरिए के आधार पर बनाए रखना उचित नहीं होता। समलैंगिकता को उचित ठहराने से पहले ट्रांसजेंडर के मामले में सर्वोच्च न्यायालय पहले ही फैसला दे चुका है। समाज में ट्रांसजेंडरों को लेकर भी अच्छा दृष्टिकोण नहीं था। उन्हें कानूनी रूप से बराबरी का हक भी नहीं प्राप्त था। वे उपहास के पात्र थे। उसी श्रेणी में गिने जाने वाले समलैंगिकों को भी समाज में हिकारत की नजर से देखा जाता है। उन्हें कानूनी स्वीकार्यता मिलने से एलजीबीटी कहे जाने वाले लोगों को अब सामान्य नागरिकों को प्राप्त सभी अधिकार मिल सकेंगे।

अपने फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना है कि समलैंगिकता मानसिक विकृति नहीं है। यह अपनी इच्छा से जीवन जीने का तरीका चुनना है। यों सामाजिक व्यवस्था में एक ही लिंग के दो लोग आपस में विवाह नहीं कर सकते, यौन संबंध नहीं बना सकते। पर इस आधार पर लोगों को इस व्यवस्था को स्वीकार करने को मजबूर नहीं किया जा सकता। अगर दो लोग स्वेच्छा से साथ रहना चाहते हैं, तो उन्हें सिर्फ इस सामाजिक मान्यता के आधार पर नहीं रोका जा सकता। सर्वोच्च न्यायालय ने समलैंगिकता को स्वीकृति देकर एक तरह से समाज के संकीर्ण नजरिए को बदलने की दिशा में भी सराहनीय कदम बढ़ाया है। जब समलैंगिक लोग सहजता से समाज में रह सकेंगे, तो समाज का दृष्टिकोण भी उनके प्रति बदलेगा। अभी तक उन्हें जैसी यातना और हिकारत झेलनी पड़ती थी, हर समय कानून का भय सताता था, वह दूर होगा, तो सामाजिक समरसता में उनका योगदान भी बढ़ेगा।